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जुलाई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
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जिस्म का चराग़ जले फ़िर ये क्यूँ है रौशनी दो दिलों के बीच छिडी अब दिलों की रागनी। उस चाँद के आगोश में अब चांदनी भी झूम उठे जिस्मों जहाँ पे लम्स(स्पर्श) की खिलने लगी है चांदनी। खुशबू है फैली कूबकू रूह पारही सुकूँ हुस्नो जिस्म ख़ामोशी से कर रहे तानाज़नी। दो किनारे एक हो चले लबे आरज़ू बुझी जले पहलूनशी है दो दिल मिले चले सिलसिले शबे नाज़नी। https://www.facebook.com/photo.php?v=1571940382030&set=vb.1341142587&type=2&theater

मैं हूँ ग़ज़ल....my ghazal album

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