एक शायर ने किया ग़ज़ल से निकाह.. तमाम शेर-ओ-शायरी थे इसके गवाह.. सब को डर था कैसे होगा इनका निबाह.. शायर और ग़ज़ल की तो थी सिर्फ एक दूजे पे निगाह.. इसी लिये तो किया था उन दोनो ने निकाह..
वो जो इष्क़ की बातें न मुझसे करता है... फ़िर भी बेइन्तेहा इष्क़ मुझसे करता है... वो जो क़समें न खाए साथ निभाने की... फ़िर भी साए सा साथ ... हरदम रहता है... मै भटकती हूँ नज़मों की तलाश में...तो... खु़द नज़्म बन के ज़हन में उतरता है... ऐसे शख़्स ने थामा है मेरी ज़िंदगी को... दिल की हर ग़ज़ल मे वो उतरता है...
कोई दे खुशी का तिनका उसपे ये जाँ निसार हम दे सके खु़शी गर ये ख़ुदा का इख़्तियार। कोई साथ दे तो एहसाँ रक्खेंगे ज़िंदगी भर उस ख़ुशफहम की ख़ातिर रह लेंगे ख़ारज़ार। कोई पूछे खै़रियत तो कहें हम है खै़रियत से मिले कोई ग़मग़ुसार तो कहें हम भी है ग़म-ए-यार। कोई लेगा इंम्तेहाँ तो दे जवाब इंम्तेहानन उसके इक इश्तेबाह(शक़) पर दे इंम्तेहाँ हज़ार। कोई है बरसता सावन कॊई ग़म का तलबग़ार कोई ग़म में मुस्कुराए कोई रोए ज़ार ज़ार । ’रूद’
चांदनी में है चमकता हुआ रौशन सा जहाँ... इक चांद है वहाँ...... झिलमिलाते है इन आँखों में इशारे से जवाँ.. इक चांद है वहाँ..... तेरे दीदार से रौशन मेरा जन्नत-ए-जहाँ.. तू चांद है वहाँ..... झिलमिलाती हुई चांदनी यूँ छुपी है कहाँ? तू चांद है जहाँ....