
"इक पल"
वो इक ’पल’ जैसा..
जो पल पल साथ रहता..
खयालों में बसता रहता..
मै उसे सोचती हूँ..
पर उसे पता ही नही चलता..
पलकों में इक मुराद बन बैठा है..
जो पूरी ना हो तो शबनम सा पिघल कर गिरता है..
मै कहाँ उसे गिरने देती..
मूंह छुपा कर चुरा लेती हूँ ..
अपनी हथेली पर सजा लेती हूँ..
उसके सूख जाने से पहले..
मेरे होठ उसे अपने आगोश मे उठा लेते है..
और वो ’पल’ मुझमें समा जाता है..
वो ’पल’ मेरा हो जाता है..
ऐसा कई बार होता है..
पर उसे पता ही नही चलता..
वो इक ’पल’ जैसा है..
टिप्पणियाँ